गिर्दा जैसा जीवन जीने की चाह भले ही अधिकतर लोगों के ज़हन में हो या न हो किन्तु गिर्दा (गिरीश तिवाड़ी) जैसी अंतिम यात्रा लोगों के मन के किसी न किसी कोने में ज़रूर छुपी हुई मिलेगी।
आज की जीवन शैली, सामाजिक तटस्थता. शहरों व महानगरों के भागमभाग जीवन में व्यक्ति चार आदमी जुटा पाने के भय से भी जहाँ कभी आशंकित हो जाता है वहीं हज़ारों व्यक्तियों की उपस्थिति में गिर्दा की अंतिम विदाई एक इतिहास बन गयी।
सम्भवतः गिर्दा के मन में भी कहीं न कहीं यह चाह अवश्य रही होगी कि जीवन चाहे कितनी भी सादगी से क्यों न जीया हो लेकिन अंतिम परिणति भव्य होनी चाहिए। सम्भवतः इसी कारण से वह अपनी एक इच्छा पूर्व में प्रकट कर चुके थे कि अंतिम यात्रा उनके लिखे गीतों को गाकर निकाली जाए। अपनी मृत्यु के बाद का एक खाका पूर्व में ही गिर्दा अपने भीतर खींच चुके थे, किन्तु अप्रत्याशित जनसमुदाय की उन्हें आशा न रही होगी।
जो लोग गिर्दा के बहुत करीब हैं और उन्हें दिल व दिमाग से बेहतर समझते हैं वे ज़रूर उस दिन इस बात को समझ रहे होंगे की गिर्दा स्वयं की शव यात्रा में उस दिन कितने मंत्रमुग्ध थे।
अपने प्रिय जनों के कंधे पर चढ़ते-उतरते, अपने लिखे गीतों को सुनते-मुस्कराते नैनीताल में पहली बार स्त्रियों के शवदाह भूमि तक पहुँचते देख गिर्दा सचमुच उस दिन अभिभूत हुए होंगे । कुछ पुरा्नी प्रथाओं को इस यत्रा मे मुक्ति भी मिल गई थी। गिर्दा की अतिरेक तृप्ति का भाव कफ़न से भी कहीं झाँकता उस दिन प्रतीत हो रहा होगा। लोगों ने चाहे पहले कभी उन्हें इतनी प्रसन्न मुद्रा में देखा हो या न देखा हो लेकिन मेरी अन्तर्दृष्टि में गिर्दा अपनी शव यात्रा में सबसे अधिक गद-गद नज़र आए । विशाल जनसमूह के हृदय से मिले प्रेम- स्नेह ने उन्हें आत्मविभोर कर दिया था। अपनी पत्नी व बेटे को लेकर चिंता की कुछ लकीरें उनके माथे पर ज़रूर नज़र आईं किन्तु अपने मित्र, सहयोगी व रिश्तेदारों पर उनको पूरा यकीन था कि वे उन्हें अकेला नहीं छोड़ेंगे।
इतने लोगों का प्यार, स्नेह व आदर पाकर लगता है मानों गिर्दा स्वयं कह रहें हों " मेरी मृत्यु का शोक क्यों मनाते हो !! मैने तुम्हें समाज को जोड़ने व हिमालय के शीश को उन्नत करने का एक पथ दिया है, इसी पथ पर निःस्वार्थ व इमानदारी से आगे बढ़ते रहोगे तो मेरी जैसी गति तुम्हें भी प्राप्त होगी ।
No comments:
Post a Comment